भारतीय न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह की तरह है क़ैदी नंबर 626710 उर्फ़ उमर ख़ालिद!

उमर ख़ालिद जेएनयू के उस छात्र का नाम है जो साढ़े चार साल से जेल में है लेकिन उसका मुक़दमा शुरू नहीं हुआ है। भारत में मुस्लिम नौजवानों के साथ मोदी राज में क्या हो रहा है क़ैदी नंबर 626710 उर्फ़ उमर खालिद एक मिसाल है। उमर की गिरफ्तारी और उसके लंबे समय तक जेल में रहने की घटनाओं पर आधारित एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'कैदी नंबर 626710 इज प्रेजेंट' भारत से लेकर ऑक्सफोर्ड कैंपस तक दिखाई जा रही है और लगातार चर्चा बटोर रही है। इस फिल्म को लाली वचानी ने बनाया है।



17 सितंबर को दिल्ली के कान्स्टीट्यूशन क्लब में 17 सितंबर को एक सभा हुई जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर समेत कई न्यायविद, वरिष्ठ पत्रकार और राजनेता शामिल हुए। सभा में मुस्लिम नौजवानों के साथ होने वाले अन्याय पर क़ानून की चुप्पी पर गहरी चिंता जतायी गयी और इसे संविधान और लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक बताया गया। खालिद पर यूएपीए लगा हुआ है। गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की धारा 15 के तहत आतंकवादी कृत्य को परिभाषित किया गया है। "भारत की एकता, अखंडता, सुरक्षा आर्थिक सुरक्षा, या संप्रभुता को धमकी देने या धमकी देने की संभावना के इरादे से, लोगों के बीच नफरत फैलाने" के इरादे से किया गया कृत्य आतंकवादी अपराध है।'' हालाँकि, इसी प्रावधान में यह भी लिखा है कि इस  हमले में "बम, डायनामाइट या अन्य विस्फोटक पदार्थ या ज्वलनशील पदार्थ या आग्नेयास्त्र ... या किसी अन्य साधन" का इस्तेमाल करके इसे अंजाम दिया गया हो। लेकिन उमर ख़ालिद पर तो ऐसा कोई आरोप नहीं है।

पुलिस का आरोप है कि उमर खालिद ने कथित तौर पर जिस "चक्का जाम" को आयोजित करने की साजिश रची थी। यानी उमर खालिद के मामले में चक्का जाम का आह्वान देशद्रोह और आतंकवाद की श्रेणी में आता है। 
दरअसल अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 2020 में दिल्ली का दौरा किया था। पुलिस के मुताबिक तब उमर खालिद ने चक्का जाम की योजना बनाई थी। उन्होंने इसके लिए कई गुप्त बैठकों में भाग लिया था। पुलिस ने गवाहों की पहचान गुप्त रखी है। इन लोगों ने आरोप लगाया है कि उमर खालिद ने उन गुप्त बैठकों में भाग लिया था। पुलिस के ये गवाह सैटर्न, क्रिप्टन, रोमियो, जूलियट, इको कौन हैं, कोई नहीं जानता। इनकी पहचान सिर्फ पुलिस जानती है। इन गवाहों के आरोपों के आधार पर पुलिस ने उमर खालिद को देशद्रोही मान लिया है। पुलिस के इन गवाहों के बयान पढ़ने से पता चलता है कि सरकारी पक्ष का सबूत यह है कि खालिद ने कथित तौर पर "खून बहाने" के बारे में बात की और रिश्तेदारों अजनबियों की मौजूदगी में "गुप्त बैठकों" में "आंदोलन खून मांगता है" कहने सहित उत्तेजक भाषण दिए और इनकी तस्वीरें भी खींचीं। बैठकें कीं और उन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट किया।

हालाँकि, खालिद के वकीलों ने कोर्ट को बार-बार बताया कि ये बयान अफवाह हैं और इन्हें कई बार संशोधित किया गया था। यहाँ तक कि एफआईआर दर्ज होने के लगभग 11 महीने बाद दर्ज किया गया। खालिद के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता त्रिदीप पेस ने इस साल जून में दिल्ली हाईकोर्ट को बताया कि इन बयानों के बाद हथियारों या साहित्य की कोई बरामदगी तक नहीं हुई, जिससे यह पता चले कि उमर खालिद एक गैरकानूनी, प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन से जुड़े थे। सरकारी पक्ष ने जो कहानी बताई, अदालत ने उसे मान लिया। यहां तक कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी खालिद के खिलाफ हैं तो भी कोर्ट ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया। परिस्थितिजन्य साक्ष्य यह है कि जब दंगे हुए तब खालिद दिल्ली में नहीं बल्कि महाराष्ट्र के अमरावती में थे। हालाँकि, दिल्ली पुलिस ने इसके लिए तर्क दिया कि दिल्ली में विरोध प्रदर्शन और "चक्का जाम" के आयोजन में वो "खामोशी" से शामिल थे। दिल्ली से बाहर होना एक "परफेक्ट बहाना" है। यानी परिस्थितिजन्य सबूत का कोई मतलब ही नहीं रह गया। दिल्ली दंगे के समय उमर खालिद अमरावती में थे। इस सबूत का अदालत में कोई मतलब नहीं है। लेकिन दिल्ली पुलिस ने संरक्षित गवाह इको की कहानी के आधार पर अदालत को बताया कि खालिद ने कथित तौर पर कहा था "चक्का जाम ही आखिरी रास्ता है", "खून बहाना पड़ेगा"। एक शख्स अमरावती में मौजूद है, इस तथ्य को सबूत माना जाना चाहिए। लेकिन सबूत दिल्ली पुलिस के गवाह इको के बयान को माना जा रहा है।

 मार्च 2022 में, कड़कड़डूमा अदालत ने खालिद की पहली जमानत याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि पुलिस दस्तावेजों को देखने पर आरोप "पहली नजर में सच" थे। जब इसके खिलाफ अपील हुई तो दिल्ली हाईकोर्ट ने भी अक्टूबर 2022 में ट्रायल कोर्ट के विचार को स्वीकार कर लिया। इसमें कहा गया है कि खालिद का नाम “साजिश की शुरुआत से लेकर आगामी दंगों तक बार-बार आया है।” माना जाता है कि वह जेएनयू के मुस्लिम छात्रों के व्हाट्सएप ग्रुप के सदस्य थे और विभिन्न तारीखों पर जंतर मंतर, जंगपुरा कार्यालय, शाहीन बाग, सीलमपुर, जाफराबाद आदि में विभिन्न बैठकों में भाग लिया था। उनके अमरावती भाषण को भी कोट किया गया। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील सुप्रीम कोर्ट ने याचिका स्वीकार कर ली थी। लेकिन सुनवाई के लिए आने पर खालिद के वकीलों ने याचिका वापस ले ली। स्पष्ट रूप से, वकीलों ने एक और प्रतिकूल निर्णय से बचने के लिए याचिका वापसी की रणनीति बनाई और इसके बजाय, ट्रायल कोर्ट में वापस जाने का विकल्प चुना। हालाँकि, ट्रायल कोर्ट ने मई 2024 में दूसरी बार खालिद की जमानत खारिज कर दी। इस फैसले को भी हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई है।

 जमानत के लिए कानूनी लड़ाई का विवरण देते हुए उमर के पिता डॉ इलियास ने कहा, “आईपीसी के तहत अन्य सभी आपराधिक आरोपों में, आरोपी को दोषी साबित करने का भार पुलिस पर होता है। हालांकि, यूएपीए के तहत, जमानत के लिए भी, अदालत में यह साबित करने का भार आरोपी पर होता है कि वे दोषी नहीं हैं। जब उमर ने जमानत के लिए आवेदन किया, तो उसके वकील ने निचली अदालत में लगभग डेढ़ साल तक बहस की- यह एक मुकदमे की तरह था। अंत में, अदालत ने एक-लाइन का फैसला दिया: प्रथम दृष्टया, पुलिस के पास मामला है; इसलिए, जमानत से इनकार किया जाता है। हम फिर उच्च न्यायालय गए, जहां मुकदमा नौ महीने तक चला, और फिर से जमानत से इनकार कर दिया गया। अंत में, मामला सुप्रीम कोर्ट में भी धीमी गति से आगे बढ़ा, नौ महीनों में 14 बार स्थगन हुआ। हमने इस साल फरवरी में शीर्ष अदालत से अपना आवेदन वापस ले लिया कई बार की देरी के बाद पहली तारीख 29 अगस्त तय की गई और अदालत ने जमानत याचिका को 5 अक्टूबर तक के लिए स्थगित कर दिया है।”


उमर की रिहाई की माँग


ज़ाहिर है, उमर ख़ालिद और उस जैसे नौजवानों का मुद्दा मानवाधिकार हनन का स्पष्ट उल्लंघन है जिसका देश में खुलकर विरोध हो रहा है।

 राजनीतिक कार्यकर्ता और स्वराज इंडिया और भारत जोड़ो अभियान के नेता योगेंद्र यादव लिखते हैं, "उमर खालिद ने जेल में चार साल पूरे कर लिए हैं। बिना किसी सुनवाई के। बिना किसी जमानत के। बिना किसी अपराध के। ये चार साल हमारी न्याय व्यवस्था और भारतीय संविधान पर एक दाग हैं।

 सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण ने उमर खालिद की हिरासत बढ़ाए जाने पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। भूषण ने एक्स पर लिखा है, "उसके खिलाफ़ लगाए गए आरोप बेतुके हैं। क्या ज़मानत नियम है और जेल अपवाद, यह कहावत उस पर लागू नहीं होती, खासकर तब जब उचित समय में मुकदमा खत्म होने की कोई संभावना नहीं है? यह न्यायपालिका पर एक बहुत बड़ा धब्बा है।"

सीएए विरोध प्रदर्शन में शामिल प्रमुख लोगों को हिरासत में लंबे समय तक रहने के बावजूद जमानत देने से इनकार करने पर सवाल उठाते हुए प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, "उमर खालिद चार साल, खालिद सैफी चार साल और सात महीने, गुलफिशा फातिमा चार साल और चार महीने और शरजील इमाम चार साल और आठ महीने से जेल में हैं। यह पूरी सूची नहीं है। उन्हें जमानत देने से क्यों मना किया जा रहा है, माननीय? उन्हें जेल में रखने से राज्य को क्या खुशी मिलती है?"

सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने उमर खालिद की चार साल की कैद पर गहरा दुख और आक्रोश व्यक्त किया और इसे घोर अन्याय बताया। मंदर ने न्याय और समानता के प्रति खालिद की प्रतिबद्धता पर प्रकाश डाला और इस बात पर दुख जताया कि देश के कई बेहतरीन दिमाग अभी भी जेल में हैं। उन्होंने न्याय की इस महत्वपूर्ण चूक को संबोधित करने में विफल रहने के लिए न्यायपालिका की आलोचना की।

अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने उमर खालिद को बिना किसी जमानत, मुकदमे या गलत काम के सबूत के चार साल तक जेल में रखने की स्थिति की निंदा की है। भास्कर कहती हैं, "यह एक ऐसे देश में एक विडंबना है जिसे लोकतंत्र माना जाता है। यह शर्म की बात है और हमारी न्याय प्रणाली के लिए एक शर्मनाक गवाही है।"





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