CJI गवई बोले- असमानता के साथ नहीं टिक सकता लोकतंत्र, समावेशी विकास ही सच्चा लोकतंत्र

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी. आर. गवई ने कहा है कि जब तक समाज में व्याप्त संरचनात्मक असमानताओं को दूर नहीं किया जाता, तब तक कोई भी देश स्वयं को पूर्णत: लोकतांत्रिक या प्रगतिशील नहीं कह सकता। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि सामाजिक-आर्थिक न्याय केवल आदर्श नहीं, बल्कि किसी भी राष्ट्र के दीर्घकालिक स्थायित्व, सामाजिक एकता और सतत विकास के लिए एक व्यावहारिक आवश्यकता है।


मुख्य न्यायाधीश गवई इटली के मिलान में "देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय में संविधान की भूमिका: भारतीय संविधान के 75 वर्षों पर एक चिंतन" विषय पर आयोजित कार्यक्रम में बोल रहे थे। उन्होंने कहा, “न्याय कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है। इसकी वास्तविक अभिव्यक्ति सामाजिक ढांचों, संसाधनों और अवसरों के समान वितरण तथा नागरिकों की जीवन स्थितियों में दिखाई देनी चाहिए।” उन्होंने स्पष्ट किया कि यदि किसी समाज का एक बड़ा वर्ग हाशिए पर धकेला जाए, तो उस राष्ट्र का विकास या लोकतंत्र खोखला साबित होगा। उन्होंने कहा, “सामाजिक-आर्थिक न्याय यह सुनिश्चित करता है कि हर नागरिक, चाहे उसकी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, गरिमा और स्वतंत्रता के साथ जी सके और राष्ट्रीय जीवन में सक्रिय रूप से भाग ले सके।" 

CJI गवई ने कहा कि सामाजिक-आर्थिक न्याय का अर्थ केवल पुनर्वितरण या कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी संपूर्ण मानवीय क्षमता के विकास, गरिमापूर्ण जीवन और लोकतांत्रिक भागीदारी का अवसर देने की बुनियादी शर्त है। उनके अनुसार, यही न्यायपूर्ण विकास की आधारशिला है। भारतीय संविधान की यात्रा को 'महत्वाकांक्षाओं और उपलब्धियों की कहानी' बताते हुए गवई ने कहा, “संविधान निर्माताओं ने संविधान का मसौदा तैयार करते समय सामाजिक-आर्थिक न्याय की आवश्यकता को भलीभांति समझा। यह दस्तावेज़ उपनिवेशवाद से मिली स्वतंत्रता के बाद देश की नई दिशा तय करने का परिणाम था।”

अपने संबोधन के अंतिम हिस्से में CJI गवई ने व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए कहा, “एक ऐसी पृष्ठभूमि से आने के कारण जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रही है, मैं गर्व के साथ कहता हूं कि आज मैं उन्हीं संवैधानिक आदर्शों का प्रतिफल हूं, जिन्होंने जाति और सामाजिक बहिष्कार की बेड़ियों को तोड़ने की राह दिखाई।”

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